Saturday, May 23, 2020

                                      आज सोचा तो आँसू भर आए


“ डॉक्टर एक ‘कोविड’ पेशेंट आया है, हालत अच्छी नही है, please be fast”
 नर्स का वाक्य पूरा होने से पहले ही नमिता उठ कर चल चुकी थी। तेज़ क़दमों से चलती हुई वह मरीज़ के पास पहुँची। कलाई की नब्ज़ पकड़ कर जैसे ही उसने रोगी के चेहरे की तरफ देखा तो वह सन्न रह गई।
“बाबा”,शब्द मुँह से निकलते-निकलते हलक में अटक कर रह गया।
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रमेश चंद्र बोन्धोपाध्याय अपने इलाक़े के प्रतिष्ठित ज़मींदार थे।अपने रोबिले और ग़ुस्सैल स्वभाव के कारण लोग उनसे कन्नी काटते थे।अपने परिवार की मान-मर्यादा को सर्वोपरि और अपने मुँह से निकली हर बात को ब्रम्हवाक्य मानने वाले रमेश बाबू को संतान के नाम पर सिर्फ एक पुत्री थी- नमिता।बेटा पैदा नही करने के लिए उन्होने अपनी पत्नी को कभी माफ़ नही किया था।अब तो बस एक ही तमन्ना थी कि किसी बड़े घराने में बेटी का विवाह धूमधाम से करके अपनी सम्पदा का वैभवपूर्ण प्रदर्शन कर सकें।


नमिता बारवीं बोर्ड के परीक्षाफल का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी और रमेश बाबू उसके लिए सुयोग वर ढूँढने में व्याकुल थे।दोनों का नतीजा एक साथ एक ही दिन उपस्थित हुआ।नमिता ‘डिस्टिंगशन’ से पास हुई थी और रमेश बाबू उसी दिन उसका रिश्ता ज़मींदार ख़ानदान के एक बेटे से पक्का करके आए थे, जो बेटी से दस वर्ष बड़ा, किंतु होनहार और कमाऊ था।  
  
नमिता भी पिता की तरह अपने निश्चय पर अडिग रहने वाली लड़की थी। उसने अपने भविष्य की रूपरेखा बना रखी थी और माँ के साथ मिलकर उसकी पूरी तैयारी भी कर ली थी।पिता की मानसिकता से वह परिचित थी और उनके विरोध से वाक़िफ़ पर फिर भी आगे बढ़ने से पहले वह एक बार अपना निर्णय उन्हे अवश्य बताना चाहती थी।


“बाबा मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ….डॉक्टर बनना चाहती हूँ”


“हम ज़मींदार हैं, हमें पढ़- लिख कर क्या करना है ? हम तो लक्ष्मी के पुजारी है !”


“पर बाबा…”


“बस और बहस नही...हमारे ख़ानदान की बेटी डॉक्टर बन कर ग़रीब बीमारों की सेवा करेगी…छि...दिमाग़ तो नही ख़राब हो गया है तुम्हारा..? दो दिन बाद तुम्हारी सगाई है, जाओ उसकी तैयारी करो”


नमिता उसी रात अपने पिता के घर को त्याग कोलकता मेडिकल कॉलेज अपने सपने को साकार करने निकल पड़ी थी।
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बीती ज़िंदगी की यादों से बाहर आते ही नमिता के अंदर का डॉक्टर सचेत हो गया और मौजूदा परिस्थिति की संजीदगी से परेशान !


“सिस्टर पेशेंट को वेन्टीलेटर पर शिफ़्ट करें, जल्दी”


दो दिन की अवचेतना के बाद आज रमेश बाबू को होश आया था। उनका इलाज करने वाली डॉक्टर का स्वर उन्हे बहुत परिचित सा लगा था, जब अर्द्ध चेतन अवस्था में उन्होने उसकी आवाज़ सुनी थी। वह बेसब्री से डॉक्टर के आने का इंतज़ार करने लगे पर एक पुरूष डॉक्टर को देख उन्हे निराशा हुई। जब दूसरे दिन भी वह नही दिखी तो उनका शक यक़ीन में बदलने लगा। शरीर की शिथिलता भी अब कम हो गई थी।डॉक्टर ने उन्हे घूमने की अनुमति भी दे दी थी।मन को मज़बूत करके वे क्षीण क़दमों से आगे बढ़े।कुछ क़दम ही चले थे कि वही चिरपरिचित स्वर उन्हे फिर से सुना।सामने के बेड के पेशेंट को वह देख रही थी। वह बोझिल क़दमों से आगे बढे। उनका सारा शरीर काँप रहा था। किसी चीज़ से लड़खड़ा कर वे ज़मीन पर चित्त गिर पड़े। पूरे वॉर्ड में अफ़रातफ़री मच गई।


“प्लीज़ यहाँ भीड़ ना लगाएँ, अपने-अपने बेड पर जाएँ, मुझे पेशेंट को देखने दीजिए।”नमिता भीड़ को संबोधित करते हुए बोली।


“आप यहाँ कैसे पहुँचे…?”नर्स इन्हें इनके बेड पर ले चलिए, कहते हुए नमिता आगे चल पड़ी ।


रमेश बाबू की आँखों से अविरल अश्रु धारा बह रही थी। नमिता ने उनके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए और नर्स को वहाँ से जाने का इशारा किया।उसकी आँखें भी सजल हो गई थी।


“ अच्छा हुआ बेटी जो तुम मुझे मिल गई ! मुझे माफ़ कर दे बेटा, मैं तेरा गुनहगार हूँ, जिन डॉक्टरों को आज लोग पृथ्वी पर भगवान का स्वरूप मान रहे हैं, उनके सेवा-भाव के लिए मैंने कैसे अपशब्द कहे थे। बेटा तेरे डॉक्टर होने पर आज मुझे गर्व है, तुमने देश में अपने परिवार का नाम रोशन कर दिया है। भगवान ऐसी लायक बेटियाँ सबको दे।”


नमिता सिर झुकाए पिता की बातें सुन रही थी। अपने हाथ पर आँसू की एक गरम बूँद के गिरने पर रमेश बाबू ने पुत्री का चेहरा ऊपर किया और उसकी आँखों में देखते हुए बोले-


“तूँ क्यों मन छोटा करती है बेटा...तुमने तो आज बेटे से भी बढ़कर काम किया है… तुमने अपने पिता को जीवनदान दिया है।”
                                                             उर्मिला पचीसिया



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