क्या यही प्यार है
“दादी मैं जा रही हूँ”, कहती हुई नताशा चप्पल की अल्मारी खोल कर खड़ी हो गई और क्या पहने इस पर विचार करने लगी।
“अरे बेटा एक बार इधर तो आ।मैं भी तो देखूँ तैयार होकर मेरी लाड़ो कैसी लग रही है”, दादी ने बड़े प्यार से आवाज़ लगाई।
“अरे दादी ! आप भी न ! देखो ! “ दादी ने पोती की सुंदरता को निहारा और बलाईयाँ ली।
हल्के नारंगी रंग का लहंगा, उस पर गहरे रंग की चोली और बेफ़िक्री से ओढ़ी हरे रंग की प्रिंटेड शिफॉन की चुन्नी ! कटे हुए खुले बाल और कानों से लटकते लम्बे कुंडल ! लंबी पतली श्वेत भुजाओं में पहनी नारंगी,हरी और सुनहरे रंग की काँच की चूड़ियाँ !ऐसे मधुर रूप-सौंदर्य को पलट कर देखने के लिए हर शख़्स मजबूर था।
“चलो दादी, जय श्री कृष्णा, देर हो जायेगी पर आप चिंता मत करना, मधु के मम्मी-पापा मुझे छोड़ने आयेगें, ठीक है”, कहती हुई नताशा,चप्पल पहनते-पहनते घर के बाहर निकल गई । जाते-जाते घर का दरवाज़ा भी बंद करती गई।
नताशा तीन साल की थी जब उसके मम्मी-पापा अलग हुए थे।अपनी मम्मी की कोई छवि उसकी स्मृति में स्पष्ट नही थी।उसकी माँ बहुत सुंदर नही थी और शायद इसलिए दादी को कम पसंद थी।उसके बाद जब पहली बेटी हुई तो दादी थोड़ी निराश हुई पर पहली बार दादी बनने की ख़ुशी ने पोती के ग़म को कम कर दिया था। पर दो साल बाद जब नाताशा की बहन पैदा हुई तब दादी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया। जापे के लिए मायके गई हुई बहू से मिलने कोई नही गया और न ही उसे किसी ने बुलाया।लोगों से दबी ज़ुबान में नताशा ने यह भी सुना था कि उसके नाना जब माँ को छोड़ने आए तब दादी ने उनकी बहुत बेइज़्ज़ती की थी और बहू व उसकी नवजात कन्या को अपने घर में रखने से साफ़ इंकार कर दिया था।ऐसा घोर अपमान उसकी माँ के लिए असह्य हो गया था।उसकी तबियत ख़राब रहने लगी और चार साल निरादर की तपन में झुलसकर उसकी माँ ने प्राण त्याग दिए थे।उसकी मौत भी एक रहस्य बन कर रह गई थी। सच्चाई क्या थी किसी को पता नही चला और ना ही किसी ने जानने की कोई जिज्ञासा जताई। माँ की मौत पर इस परिवार का कोई सदस्य उसके मायके नही गया था। छोटी बहन से भी किसी ने कोई संबंध नही रखा। बड़े होने के बाद से ये सब बातें नताशा को परेशान करने लगी थी। वह सच्चाई जानना चाहती थी पर सत्य उसे कौन बताता ? पिता तो अपनी दुनिया में मस्त थे। उनका रिश्ता सिर्फ़ घर-ख़र्च के पैसे देने तक था। नताशा के साथ उनकी विशेष बातचीत नही होती थी। नताशा को ऐसा क्यों लगने लगा था कि उसके पिता उससे नज़रें मिलाने से कतराते थे।मानों अपने मन की ग्लानि को छुपा रहे हों।नताशा के प्रति दादी का प्यार ममतापूर्ण था। माँ की कमी दादी ने उसे कभी नही महसूस होने दी थी।दादी के कोई बेटी नही थी। नताशा दादी की पुत्री बन गई थी। बचपन उसने दादी की ऊँगली और पल्लू पकड़कर बिताया था।बचपन बीता और जवानी ने क़दम रखा, तब उसकी सुप्त कोमल व सूक्ष्म भावनाओं ने भी अँगड़ाई ली और मन की जिज्ञासा प्रश्नों का सैलाब लेकर उपस्थित हुई थी।
आज नताशा की सबसे प्रिय सखि नीरजा की शादी के संगीत का प्रोग्राम था।नीरजा की मम्मी के बहुत ज़ोर देने पर नताशा उसके संगीत में एक नृत्य प्रस्तुत करने को तैयार हुई थी। कार्यक्रम आरंभ हुआ और गणेश-वंदना के बाद तुरंत नताशा ने अपना डाँस प्रस्तुत किया।नृत्य पूरा होते ही हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।स्वभाव से ही शर्मीली व अंतर्मुखी नताशा ने झुककर सबको प्रणाम किया और नतमस्तक ही स्टेज से बाहर निकल गई।संगीत का रंगारंग कार्यक्रम घंटे भर और चला और फिर सब लोग सभागार से लगे हुए खुले मैदान की ओर भोजन के लिए अग्रसित हुए।नताशा भी अपनी सहेलियों के साथ मैदान के कोने में लगी गोल मेज़ के चारों तरफ़ कुर्सियाँ डाल कर बैठ गई।एक नौजवान ,जिसकी आँखें नृत्य के पश्चात से ही नताशा को निहार रही थी,नताशा से सम्मुख हुआ।
“आपकी बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बधाई देना चाहता हूँ।” मेरा नाम मनीष है और मैं नीरजा का कज़िन हूँ।”
नताशा ने पल भर के लिए नज़रें उठा कर मनीष को देखा और शुक्रिया कह कर निगाहें झुका ली।झुकी पलकों के बावजूद उसे मनीष की घूरती नज़रों का आभास होता रहा।फिर जाते हुए क़दमों की आहट पर उसने राहत की साँस ली।पर सहेलियाँ उस क़िस्से को ख़त्म करने के मूड में क़तई नही थी।पूरी शाम वे नताशा को उसके नए आशिक की हर हरकत से अवगत करवाती रही।
पिछले दो दिन नीरजा की शादी की भागदौड़ से थकी नताशा आज पूरा दिन आराम फ़रमाने के मूड में थी।शैम्पू किए हुए सूखे केशों में कंघी करने में भी आज आलस्य आ रहा था।औंधे लेट कर पुराने गाने सुनती हुई जाने किन विचारों में उलझी हुई थी।दादी मंदिर जाते-जाते किवाड़ उढ़ाल गई थी।अचानक बजी डोरबेल ने उसे चौंका दिया।पहले लगा दादी होगी अभी दरवाज़ा खोलकर अंदर आ जायेंगी।पर जब ऐसी कोई हरकत नही हुई तो बड़े अनमने ढंग से उठकर उसने दरवाज़ा खोला।सामने मनीष के साथ खड़ी महिला को देखकर हतप्रभ रह गई।
“नमस्ते, ऐसे बिना बताए आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ। ये मेरी मम्मी हैं।” एक ही साँस में मनीष सब कुछ कह गया।
किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी नताशा की तंद्रा को भंग करते हुए मनीष की मम्मी बोली।
“बेटा हमें आपकी दादी से मिलना है।आज दोपहर की फ़्लाइट है हमारी इसलिए पूर्व सूचना बिना ही आ गए।”
“आइए आंटी,अंदर आइए। दादी मंदिर गई हैं बस आती ही होगी।” कहते हुए नताशा को अपनी बिखरी अवस्था का अहसास हुआ।सामने से आती दादी को देख उसने राहत की साँस ली और अतिथियों को दादी के सुपुर्द कर स्वयम् मेहमानों के आवभगत हेतु रसोईघर की ओर बढ़ गई।
मनीष की मम्मी नताशा के लिए उसका रिश्ता लेकर आई थी।नीरजा की शादी में नताशा को देखने के बाद से ही उसे बहू बनाने के लिए आतुर थी।मनीष का घर-परिवार दादी की अपेक्षा से बेहतर था।लड़का भी पढ़ा-लिखा और देखने में सुंदर था।सब तरफ़ से तसल्ली करने के बाद दादी ने बेटे की रज़ामंदी जानने के बाद ही हाँ भरने का अपना निश्चय उनके सामने रख दिया।मनीष की मम्मी तो रोका करके संबंध पक्का करने का मन बना कर आई थी।ख़ैर जल्द ही मिलने की आस व्यक्त करके वे दोनों चले गए।
घर बैठे इतना अच्छा रिश्ता पा जाने की ख़ुशी ने दादी के अंदर अद्भुत स्फूर्ति का संचार कर दिया था।सबसे पहले तो उन्होंने अपने बेटे को फ़ोन लगाकर तुरंत घर आने का फ़रमान सुनाया।फिर नीरजा की मम्मी से मनीष और उसके परिवार के बारे में जानकारी लेने बैठ गई।दादी इन गतिविधियों में ऐसा उलझी कि मंदिर से आकर नाश्ता करना भी भूल गई।
बेटे के आने पर दादी ने उसे सारी बातें विस्तार से बताई और उसकी राय जाननी चाही।ऐसे अप्रत्याशित समाचार को सुनकर नताशा के पापा असमंजस्य में पड़ गए।उन्होंने बेटी को बुलाकर उसकी इच्छा जाननी चाही।
“जैसा आपलोगों को उचित लगे”,कहकर नताशा दूसरे कमरे में चली गई।
दादी ने मनीष की मम्मी को फ़ोन करके अपनी रज़ामंदी दे दी।उन लोगों ने फिर उस दिन अपने जाने का प्रोग्राम स्थगित कर दिया।मनीष की मम्मी ने उसी दिन शाम को रोका की रस्म करने की इच्छा ज़ाहिर की।।दादी ने भी हामी भर दी।फिर तो पूछो मत सबके पैरों में मानो चकरी फ़िट हो गई थी।पापा नाश्ते का इंतज़ाम करने निकल पड़े।दादी फ़ोन पर न्योता देने में व्यस्त हो गई।नताशा क्या पहनेगी इसकी चिंता किसी को नही थी।
नताशा समझदार थी और ख़ूबसूरत भी ।सलीक़े से पहना गया साधारण कपड़ा भी उसके तन से लगकर किसी डिज़ाइनर की कृति लगता था।उसने हल्के गुलाबी रंग की जॉर्जेट की साड़ी पहनी,जिस पर मोती के छोटे-छोटे फूल बने हुए थे।गले में उसने दादी की बजरी मोतियों की दुलड़ी माला पहनी और उसके मैचिंग कान के बुंदे।इतने से श्रृंगार से ही उसका रूप-लावण्य दमकने लगा था।
शाम ढलने से पहले ही रिश्तेदारों का आगमन शुरू हो गया।बाहर के किसी को न बुलाने के बावजूद क़रीबी संबंधियों के आने से ही घर भरा हुआ सा लगने लगा था।दादी ने किस को क्या काम संभालना है उसकी मानसिक सूची बना रखी थी।आते ही सबको काम पर लगा दिया।बिना पढ़े भी दादी किसी ऑफ़िस के मैनेजर से कम क़ाबिल नही थी।
निर्धारित समय पर मनीष और उसकी मम्मी कुछ रिश्तेदार को लेकर आ पहुँचे।इस बार मनीष के पापा भी उनके साथ आए थे।नीरजा की मम्मी ने नताशा के घर पहुँचते ही अपना दल बदल लिया और कन्यापक्ष की तरफ़ से काम में जुट गई।
नीरजा का ससुराल भी शहर में ही था,अपनी सहेली की ख़ुशी में शरीक होने वह भी अपने पति के साथ आई।नताशा के गले लग कर उसने उसे ढेरों बधाई दी।उसने बताया कि नताशा कितनी ख़ुशक़िस्मत है।मनीष के लिए साल भर से लड़कियाँ देख रहे थे पर उसे कोई समझ ही नही आती थी।मनीष अपने रईस माता-पिता की एकमात्र संतान था।नताशा को वे लोग राजरानी की तरह रखेंगे,ऐसा नीरजा ने उन्हें बताया।उपस्थित सभी लोग नताशा के अच्छे नसीब को सराहने लगे।
बड़ी धूमधाम के साथ नताशा व मनीष की सगाई हुई।नीरजा ने अपनी अन्य सहेलियों के साथ मिलकर नृत्य-संगीत का बेहतरीन समाँ बाँधा।सभी रिश्तेदार दोनों की जोड़ी की प्रशंसा करते-करते विदा हुए।
मनीष नताशा को डिनर पर ले जाना चाहता था।किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी।सभी चाहते थे कि लड़का-लड़की एक दूसरे को समझ लें।
मनीष शिक्षित,सौम्य व सुशील था।नताशा को बातचीत से वह बहुत सुलझा हुआ प्रतीत हुआ।पहली मुलाक़ात में वह उससे काफी प्रभावित हुई थी।मनीष को तो ऐसा लग रहा था मानो उसकी मन चाही मुराद पूरी हो गई हो।अपने जीवन साथी में उसे जिन गुणों की तलाश थी,वह सारे गुण उसे एक लड़की में मिल पायेगें,इसकी उसे कम आशा थी।अपनी ख़ुशनसीबी पर उसे यक़ीन नही हो रहा था।कल उसे हर हाल में फ़्लाइट से “जोरहाट”पहुँचना था।वरना इतनी जल्दी जाने का उसका क़तई मन नही था।नताशा को घर छोड़ते समय मनीष ने अगले दिन एयरपोर्ट पर मिलने का वादा आख़िर ले ही लिया।
अगले दिन मनीष आँखों से तो ओझल हो गया पर दिल में अपनी जगह बना गया।जोरहाट पहुँच कर तो फिर दिन में अनगिनत फ़ोन और कोरियर से तोहफ़ों का सिलसिला शुरू हो गया।
मनीष के माता-पिता को तो पहले से ही बहू लाने की जल्दी थी।बेटे के सब्र का भी वे और इम्तिहान लेना नही चाहते थे।पंडित को बुलाकर यथाशीघ्र विवाह का मुहूर्त निकालने का निवेदन किया।पंडितजी ने पंचांग खोलकर मनन किया और दो महीने बाद की तिथि बताई।मनीष को तो दो महीने भी पहाड़ जैसे लग रहे थे पर उसके अभिभावक संतुष्ट थे।एकलौते बेटे के विवाह की तैयारी के लिए इतना वक़्त तो आवश्यक था।
तय हुआ कि शादी लोनावाला के किसी रिसोर्ट से करेंगे।जगह की बुकिंग,मेहमानों की लिस्ट बनाना, उनको वापसी में तोहफ़े देने पर विचार करना, रोज़ का “मेन्यू” बनाना--काम तो अनगिनत थे।मनीष को अपने सपनों की दुनिया में विचरने को मुक्त छोड़ मम्मी-पापा सहर्ष लगन के कार्यों में जुट गए।
दो महीने तो पंख लगे हों ऐसे भागते जा रहे थे।शादी के दस दिन बचे थे।सात दिन पहले से तो गणपति पूजन आदि आरंभ होने वाले थे।विवाह कंकोत्री भी सभी मेहमानों को भेज दी गई थी। विवाह की सारी तैयारियाँ प्राय:हो चुकी थी।
उस दिन मनीष से देर रात तक फ़ोन पर बात करने के बाद नताशा सोने की तैयारी करने लगी।कपड़े बदलने बाथरूम में गई कि अचानक पेट में दर्द उठा।पीड़ा कम होने का नाम ही नही ले रही थी।पेट में गैस हो गई होगी सोचकर नताशा उसका उपचार करने लगी पर दर्द बद से बदतर होता चला गया।पीड़ा की तीव्रता बढ़ी और नताशा के मुँह से ज़ोर की चीख़ निकल गई जिससे दादी की आँख खुल गई।बच्ची की हालत देखते ही दादी को समझ आ गया कि मामला सीरियस है।उसने आवाज़ लगाकर बग़ल के कमरे में सो रहे अपने बेटे को उठाया और ख़ुद पोती का पेट सहलाने लगी।पापा ने आकर नताशा से दो चार प्रश्न किए जिनका उत्तर वह बड़ी मुश्किल से दे पाई।दादी ने उसे गाड़ी निकालने का आदेश दिया और स्वयम् नताशा को लेकर अस्पताल जाने की तैयारी करने लगी।
अस्पताल के एमरजेंसी वॉर्ड में उपस्थित डॉक्टर ने अपनी जाँच-पड़ताल और सोनोग्रफी के बाद सीनियर सर्जन से बातचीत की।उसके बाद उसने घरवालों को बताया कि नताशा के पेट में अल्सर है जिसका ऑपरेशन तुरंत करना पड़ेगा वरना अगर वो पेट में फट गया तो “कॉम्पलिकेशन” और बढ़ सकती है और मरीज़ की जान को ख़तरा हो सकता है।दादी और पापा सकते में आ गए पर दूसरे किसी विकल्प की अनुपस्थिति में डॉक्टर की बात मानने के अलावा उनके पास और कोई चारा नही था।
परमात्मा की कृपा से ऑपरेशन सफल रहा।सबके चेहरों पर ख़ुशी की आभा नज़र आई।अब तक सुप्त सभी प्रश्न जाग्रत हो कुलबुलाने लगे।शादी को नौ दिन बचे थे।इतने दिन में क्या नताशा स्वस्थ हो कर घूम फिर सकेगी ?
डॉक्टर को वस्तुस्थिति से परिचित करवाया गया।उसने बहुत अफ़सोस जताया पर स्पष्ट कह दिया कि नताशा के लिए एक महीना बिस्तर पर आराम करना बहुत ही आवश्यक है।शादी तो छ महीने से पहले होने का सवाल ही नही उठता।अपनी बात कहकर डॉक्टर तो चला गया पर बेटी का बाप अपना सिर अपने हाथों में पकड़ कर बैठ गया।दादी धीरे-धीरे सुबकने लगी।ऐसी हालत में भी नताशा ही थी जो स्पष्ट सोच पाने में समर्थ थी।उसने अपने बुज़ुर्गों को संयत करने का प्रयास किया।उन्हें आश्वासन दिया कि मनीष बहुत समझदार है, स्थिति की गंभीरता को समझेगा। आख़िर दोष तो किसी का भी नही था।नताशा की बातों से हिम्मत जुटा कर पापा ने मनीष को फ़ोन लगाकर उसे नताशा के ऑपरेशन की ख़बर दे दी।मनीष ने तत्काल पहुँचने का आश्वासन दिया।उससे बात करने के बाद पापा और दादी की चिंता कुछ कम हुई।
पहली फ़्लाइट पकड़ कर मनीष और उसके मम्मी-पापा नताशा को देखने अस्पताल पहुँचे।उन्होंने नताशा और उसके पापा और दादी का हौसला बढ़ाया और “परिस्थिति के हाथों सब मजबूर होते हैं” कहकर उनकी कुछ चिंता कम की।पापा ने उनको डॉक्टर की हिदायतों के बारे में बताया।उनलोगों ने डॉक्टर से मिलकर सब बातें समझी और पापा से कहा,
“शादी-ब्याह बिना ईश्वर अनुकंपा के नही हो सकते।जैसे हरि की इच्छा ! छ महीने बाद करेगें।मेहमान अभी रवाना नही हुए हैं उन्हें अभी रोक देते हैं।”
ऐसा कह कर नताशा को शीघ्रतिशीघ्र स्वस्थ होने का आशीर्वाद देकर वे लोग चले गए।जाते हुए मनीष को भी ज़बरदस्ती अपने साथ ही ले गए।
दूसरे दिन सुबह ही कुरियर से एक पत्र आया।पत्र मनीष के पापा का लिखा हुआ था जिसमें उन्होंने रिश्ता तोड़ने की अपनी विवशता पर खेद जताया था।उनके डॉक्टर ने नताशा की रिपोर्टस देखकर यह चिंता दिखाई थी कि नताशा भविष्य में शायद प्रजनन के लायक न रहे।उन्होंने लिखा कि मनीष चूँकि उनका एकलौते पुत्र है इस कारण परिवार के भविष्य को नज़रअंदाज नही किया जा सकता है।मनीष का विवाह वे उसी मुहूर्त पर किसी दूसरी कन्या के साथ कर रहे हैं,क्योंकि आगे साल भर तक कोई अच्छा सावा नही है।
पत्र पढ़कर पापा और दादी को काटो तो ख़ून नही ।रिश्तेदारों तक बात पहुँची तो लोग तरह-तरह के सुझाव देने लगे।किसी ने मानहानि का दावा ठोकने की सलाह दी तो किसी ने समाज की पंचायत बुलाने की राय।पापा और दादी असमंजस में थे कि क्या करें।
उड़ते-उड़ते ख़बर नताशा के कानों तक पहुँची तो वह स्तब्ध रह गई।अपने पापा-दादी को छोड़ क्या इन अजनबियों को वह अपना पूरा जीवन समर्पित करने चली थी जिन्होंने एक वाक्य में उसके विश्वास और समर्पण को कुचलने में एक क्षण का संकोच नही किया था।अपना दिल हथेली पर लेकर आए मनीष को उसने बिना हिचकिचाए स्वीकार कर लिया था और उसने उसे अपने जीवन से दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकने से पहले एक बार उससे बात करना भी ज़रूरी नही समझा ? क्या यही हैसियत है लड़कियों की हमारे समाज में ?
नताशा पापा के कमरे में पहुँची।पापा पेटी बाँध रहे थे।
“कहीं जाने की तैयारी है पापा ?”
“हाँ बेटा,जोरहाट जा रहा हूँ।”
“क्यों पापा ? हमने पहले भी भीख नही माँगी थी।अब भी नही माँगेंगे।”
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नताशा का मुन्ना आज चालीस दिन का हो गया था।दादी ने आज दावत रखी थी।जान-पहचान के हर बंदे को आज की दावत में आने का निमंत्रण भेजा गया था।पूरा घर रोशनी से जगमगा रहा था।घर के हर कोने से ख़ुशी की फुहार निकल रही थी।नीरजा भी अपने पति के साथ आई थी।अपनी सहेली को मुबारकबाद देने उसके पास पहुँची।उसके प्यारे से बेटे को गोद में उठा कर निहारते हुए बोली,
“मनीष भी कलकत्ता आया हुआ है, अपनी बीवी के इलाज के लिए”
“क्यों क्या तकलीफ़ है”? नताशा ने बेतकल्लुफ़ी से पूछा।
“शादी को इतने साल हो गए पर अभी तक घर में किलकारी नही गूँजी।”नीरजा बोली।
कमरे में घुसते हुए दादी बोली,”बेटा ,स्वर्ग-नरक सब इसी जन्म में भुगतना पड़ता है, जिसका जो नसीब”
“चल नताशा नीचे सब तेरे लाल को देखने के लिए आतुर हो रहे हैं।”
उर्मिला पचीसिया, बड़ौदा , गुजरात
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