Saturday, May 23, 2020

                                                        बीती विभावरी,जाग री !

कहानियाँ हमें दिलचस्प लगती हैं क्योंकि वे सामान्य जीवन से हटकर कुछ कहती हैं।अच्छी कहानियाँ हमें ज़िंदगी जीने का संदेश देती हैं ,तो कुछ कहानियाँ अविश्वसनीय लगती हैं - मन मानने को राजी नही होता कि ऐसा भी होता है ..!मैं आज आपको जिस लड़की की कथा सुनाऊँगी वह स्कूल में मेरे साथ पढ़ती थी. उसकी कहानी भी विश्वास करने को मन नही चाहता है पर यह हक़ीक़त है।


उसका नाम सुनयना शायद उसके रूप को देख कर ही रखा गया था। उज्जवल रंग, तीखे नाक-नक़्श । उसकी बड़ी-बड़ी आँखें दुर्गा माता की प्रतिमा की याद दिलाती थी।प्रभु ने बड़ी फ़ुर्सत में उसे बनाया था।


बालमन कच्ची मिट्टी सा कोमल होता है।अपने आसपास कही जाने वाली बातों का उस पर गहरा असर होता है।ऐसा नही है कि केवल नकारात्मक प्रतिक्रिया ही व्यक्तित्व विकास में बाधक होती है।वास्तव में अति किसी भी चीज़ की बुरी होती है- अतिशय ममता अथवा प्रशंसा के भी दुष्परिणाम होते हैं जो इंसान के व्यक्तित्व को तहस-नहस करके छोड़ देते हैं।।इस कहानी की नायिका के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था।।


 परिवार के सभी सदस्य सुनयना के रूप की प्रशंसा करते नही थकते थे, इस बात से बेख़बर की इस ख़ूबसूरती के बखान का उसके मासूम से मन पर कितना विकृत प्रभाव पड़ रहा होगा। सुनयना जितनी सुंदर थी ,उतनी ही कुशाग्र भी और उतना ही सुरीला गाती भी थी। उसका शालीन आचरण सबको मुग्ध कर जाता था।


सब कुछ अपनी जगह ज़रूरत से ज़्यादा ही अच्छा था। शायद इसके पीछे भी ईश्वर का कुछ और ही मक़सद था।


किशोरावस्था में सुनयना के रूप को देख बरबस लोगों के मुँह से निकल पड़ता -


“यह तो राजरानी बनेगी, इसका राजकुमार तो इसे माँग कर ,अपनी घोड़ी पर बैठा कर ले जायेगा।”


सुनयना अब खुली आँखों से यह सपना देखने लगी थी और हर पल अपने राजकुमार की आहट की प्रतीक्षा में रहती थी। कच्ची मिट्टी में अंकित हुए शब्द समय की सीमेंट से भर कर पत्थर की लकीर बन गए थे। सुनयना के स्वभाव में भी परिवर्तन दिखने लगा था। रूप के घमंड से चेहरे की मासूमियत कहीं लुप्त हो गई थी। 


जिस पल का इंतज़ार था वह क्षण भी उसकी ज़िंदगी में शीघ्र ही उपस्थित हुआ। बोर्ड की परीक्षा खत्म होते ही उसका हाथ माँगने एक बड़े घर के शिक्षित लड़के मलय का रिश्ता आ गया। इस बात से कोई भी सामान्य लड़की अपने भाग्य पर प्रसन्न होती पर सुनयना की प्रतिक्रिया कुछ विचित्र थी -


“ऐसा तो होना ही था, मेरे लिए लड़कों की कोई कमी थोडें ही थी।” उसका ऐसा मानना था।


“तुम कितने भाग्यशाली हो कि तुम्हें मुझ जैसी सुंदर लड़की मिली” - सगाई के बाद सुनयना कि कही इस बात को मलय ने तब मज़ाक़ समझ कर टाल दिया था। वह वक्तव्य सुनयना के बिगड़ते मानसिक संतुलन की तरफ ईश्वर का इशारा था, परंतु अक्सर सृष्टि की हिदायतें हम अनसुनी कर जाते हैं।


हमारा मष्तिष्क अहम, अभिमान और अहंकार के बीच तारतम्य बैठाने में सक्षम होता है पर हज़ार में से एक व्यक्ति अपनी मानसिक कमज़ोरी के कारण, अभिमान को अहंकार बनने से रोक नही पाता है और फिर उसका अहंकार सिर चढ़ कर बोलने लगता है। वह इंसान फिर सही और ग़लत का भेदभाव भी भूल जाता है और उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है।


बचपन से जिस राजकुमार के सपने देखे थे, वह तो पलक झपकते ही पूरा हो गया। इस उपलब्धि ने सुनयना को इस बात पर भरोसा दिला दिया कि परिवार के लोग सच ही कहते थे। उसे लगने लगा कि उसकी परम सुंदरता के आगे सारी दुनिया नतमस्तक होने को तैयार खड़ी है। इस भ्रम को उसने सच मान लिया था। वह वास्तव में अपने आप को राजरानी समझने लगी थी। उसके स्वभाव की मधुरता कड़वाहट में बदल गई और हर किसी को खरी-खोटी  सुनाना उसकी फ़ितरत।सब लोग उसके पीठ पीछे बातें बनाने लगे थे कि


“छोरी के दिमाग़ पर असर हो गया लगता है, कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगी है।”


“ब्याह का मुहूर्त निश्चित हो चुका है, कहीं कोई लाग-लपट तो नही हो गई।”


जितने मुँह उतनी बातें, पर होनी को कौन टाल सकता था ! निश्चित तिथि को विवाह हो गया और सुनयना हँसते-मुस्कुराते अपने पिया के घर चली गई।


शादी के दो दिन बाद वे दोनों हनीमून पर चले गए। सुनयना की दंभ भरी बेतुकी बातों का सिलसिला वहाँ भी जारी रहा, जो गंभीर प्रकृति के मलय के लिए बर्दाश्त करना असह्य हो गया।हनीमून से लौटते ही मलय ने ‘साइको’ सुनयना के साथ संबंध विच्छेद की घोषणा कर दी और दोबारा उससे मिलने नही गया।


इस वज्रपात का आघात सुनयना की माँ सह न सकी और संसार से विदा हो गई।


उसके बाद मनोचिकित्सक के इलाज का लंबा दौर चला।सुनयना को उपचार से लाभ भी हुआ परंतु कड़ी दवाइयों के कारण उसका वज़न बढ़ गया और चेहरा कील- मुँहासों  से भर गया। जिस चेहरे को निहारते हुए लोगों का जी नही भरता था अब कोई उसकी तरफ पलट कर भी नही देखना चाहता था।


कहते है न, डूबते हुए को तिनके का सहारा ! सुनयना के निराशामय अस्तित्व को भी भगवद भजन रास आने लगा। सारा-सारा दिन उसका सत्संग में बीतने लगा। कालांतर में पिता की असामयिक मृत्यु ने उसे सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दिया और एक दिन बिना किसी को कुछ बताए वह कहीं चली गई।
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शादी के बाद मैं भी अपना नगर छोड़ दूसरे शहर में जाकर बस गई। कई वर्ष पश्चात अपने स्कूल के विद्यार्थियों के साथ मैं धर्मशाला की पहाड़ियों में ‘ट्रेकिंग’ के लिए गई ।पहाड़ों पर चढ़ते हुए पैर जवाब देने लगे थे।पास ही एक प्रसिद्ध गुरू का आश्रम था।हम सब कुछ देर सुस्ताने की इच्छा से वहाँ रूक गए।आश्रम में प्रवेश करते ही एक साध्वी ने आकर बच्चों का स्वागत किया और उनसे बातें करने लगी। उनकी आवाज़ की मिठास में एक अपनत्व का भाव था। सिर मुंडा हुआ था फिर भी उनके चेहरा का लावण्य मुझे अपनी तरफ खींच रहा था। उनकी बडी-बडी आँखों में गहरा अवसाद था,जो बार- बार मुझसे कुछ कहना चाह रहा था। मैं भी उद्विग्न मन उसके नयनों की गहराई में उतरती जा रही थी। मेरी उपस्थिति से बेख़बर वे बच्चों में खोई हुई थी। मैं अपनी स्मरण शक्ति को टटोल रही थी कि अचानक मेरी नज़रों के आगे अंधकार छा गया। मेरी याददाश्त पर एक बिजली सी कौंधी और होंठ काँपते हुए बुदबुदा उठे -”सुनयना”...! 


बच्चों की पलटन को आगे भेज, कुछ क्षण एकांत के मिलते ही मैंने फिर उन्हे सुनयना कह कर संबोधित किया। 


“सुनयना का अब कोई अस्तित्व नही रहा बहना, मेरा नाम साध्वी भाग्यरेखा है।”


कहते हुए उन्होने अपनी बड़ी गहरी आँखों से मेरी तरफ क्षण भर यूँ देखा मानो मेरे मन-मष्तिष्क से अतीत की अपनी सभी यादें मिटा रही हों और सहमे हुए दृढ़ क़दमों से चलती हुई आश्रम के अंदर चली गई।


अपनी बस की तरफ लौटते हुए दूर पहाड़ियों की वादियों से जयशंकर प्रसादजी की कविता “बीती विभावरी, जाग री” की गूँज मेरे कर्णों को सहलाने लगी, जिसका वाचन स्कूल की पद्य प्रतियोगिता में सुनयना ने मुक्त कंठ से कर के प्रथम पुरस्कार हासिल किया था।
                                                             

 ‘उर्मिला’

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