हम तो आख़िर इंसान ही हैं,
शिव की तरह भगवान नहीं,
जो....
सती के शव को,
काँधे पर उठाए,
ब्रम्हाण्ड का
भ्रमण कर आए !
मानव मन
कब तक ..?
जर्जर रिश्तों का
बोझ उठाएगा,
शिथिल संबंधों को
कब तक..?
अपनी साँसों से
चलाएगा ..?
जाने वाला तो
जाता ही है
इंसान
कब उन्हें
रोक पाता है...?
मुर्दा लोगों की
बस्ती में,
जीते जी
कौन मर पाता है
मृत हुए
रिश्तों में
पुन:
प्राण
कौन फूँक पाता है...?
जीते जी
कौन मर पाता है...?
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