Friday, July 1, 2016

दलित बालक

समाज की गंदगी को
       बुहारता
दूसरों के घरों को
     सँवारता
रूखे बाल, सूनी आँखों वाला
  वह दलित बालक
"दीदी कचरा दो" की
  पुकार लगाता
चिपके पेट की आग मिटाने
कचरे के डिब्बे में
 बासी, सूखी
रोटी के टुकड़ों  को
    तलाशता
धर्मनिरपेक्षता की
   हँसी उड़ाता
भारत का भविष्य
अपने निर्मूल अस्तित्व की ख़ातिर
  ज़िंदगी  से संघर्ष
    करता जाता
   जीने के लिए
  पल-पल मरता जाता
    बेबस निगाहों से
      बहते आँसू के
    घूँट से अपनी प्यास
      बुझाता जाता
     बेरहम दुनिया के
      सितम चुपचाप
       सहता जाता। !



Tuesday, May 24, 2016

कर्तव्य निभाएँ

                                                       अपना कर्तव्य निभाएँ

नीलम अपने ससुर के निधन के तेरहवें दिन अपने मित्रों से मिलने सजधज कर निकलने को तैयार हो रही थी। उसकी ताई सास ने उसकी सास से कहा कि उसे समझाए कि इस समय दोस्तों से मिलने जाना अच्छा नहीं लगेगा। सास ने कहा, " मेरी बात बहू मानेगी नहीं, बोलकर बेकार अपना अपमान क्यों करवाऊँ ?" देवरानी की बात ने ज़ेठानी को सोचने पर मजबूर कर दिया। ताईसास ने बहू से कहा, " बेटा तुम अपने दोस्तों से मिलना चाहती हो तो उन्हें घर पर बुलवा लो, क्योंकि तुम्हारे ससुर को गुज़रे अभी बारह दिन ही बीते हैं, ऐसे में तुम घर से बाहर घूमोगी तो लोग बेकार की बातें बनाएँगें"। ताईसास की बात को अनसुना कर नीलम घर से निकल गई। उसकी सास ने अपनी ज़ेठानी से कहा-"देखा ना जीजी, आपकी बेइज़्ज़ती करके चली गई। मैं जानती थी वो मानेगी नहीं। तभी तो आपको भी कहने से मना कर रही थी।"
ज़ेठानी ने देवरानी को देखा और बोली-" इस नई पीढ़ी की धृष्टता के सामने क्या हम अपना कर्तव्य भूल जाएँ ? बड़ों का फ़र्ज़ है अपने से छोटों को सही राह दिखलाना, हमें अपने दायित्व को निभाना चाहिए, परिणाम की चिंता ऊपरवाला करेगा।"
आज के अभिभावक अपने बच्चों से कुछ भी कहने से घबराते हैं। अपनी कमज़ोरी को छिपाने के लिए उन्हें  अक्सर यह कहते हुए सुना है कि ये आजकल के बच्चे हैं, इन्हें कुछ भी कहने से पहले सोचना पड़ता है। पीढ़ियों के बीच विचारों का मतभेद  हर युग और हर काल में रहा है और रहेगा, इसके चलते बुज़ुर्ग अपने अनुभव के ज्ञान से युवा पीढ़ी को वंचित नहीं रख सकते। बच्चों का मार्गदर्शन करना बड़ों का उत्तरदायित्व होता है, जिसका निर्वाह उन्हें हर हाल में करना चाहिए। उचित-अनुचित, सही-ग़लत की शिक्षा देने से पहले ही नई पीढ़ी को दोषी क़रार देना ठीक नहीं है। बड़े अपना फ़र्ज़  अदा करें और बच्चों को अपना कर्तव्य निभाने का मौक़ा दें।

Thursday, May 12, 2016

"सॉरी "

"सॉरी" शब्द का प्रयोग इतना आम हो गया है कि उसके अर्थ की विशेषता कहीं खो गई है। बच्चे ने किसी का खिलौना या कोई सामान ले लिया तो हम तुरंत उससे सॉरी बुलवा कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाते हैं। मात्र सॉरी बोलने से बच्चे को अपनी ग़लती का अहसास कितना होता है यह विचारणीय है।
आज वस्तु स्थिति यह है कि इंसान बिना ग़लती के सॉरी बोलने में जरा भी विलंब नहीं करता है। उसे पता है कि उससे भूल नहीं हुई है तब दूसरे व्यक्ति की मन की शांति के लिए माफ़ी माँगने में उसे कोई संकोच नहीं होता है। परंतु वास्तव में अगर हमसे कोई ग़लत बात हो जाए तब सॉरी बोलने से हमारे आत्मसम्मान को ठेस लगती है। हम अपनी बात पर पर्दा डालने की, उसका सही अर्थ समझाने की पूरी कोशिश करते हैं परंतु क्षमा माँगने से कतराते हैं। पिछले दिनों आमिर खान संबंधित विवाद में हमने कुछ ऐसी ही स्थिति को देखा था।
अंजाने में कही हमारी किसी बात से अगर किसी का मन दुखी हुआ हो तो हम सॉरी कहते हैं। अथार्थ अपने कथन द्वारा किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का हमारा कोई इरादा नहीं था, फिर भी किसी को बुरा लगा हो तो हम क्षमायाचना करते हैं। यही भारतीय संस्कृति और परंपरा है।
अपनी भूल स्वीकार कर सुधारने से हमारा क़द छोटा नहीं होता, बल्कि और ऊँचा हो जाता है। हमारा मन तो ग्लानिमुक्त होता ही है, दूसरे के मन को सुकून पहुँचा ,हमारा मन भी हर्षित होता है।

Sunday, May 1, 2016

शूल

पीछे से ...
आनेवाली,
पद्चाप को,
अनदेखा करने की,
तुम
कभी न करना
भूल ...!
जाने कब...?
आगे निकल...
वह
बन जाए ...
तुम्हारे ही पथ का
शूल ....!

Friday, April 29, 2016

Freedom of speech

अभिव्यक्ति वैचारिक आदान-प्रदान का ऐसा साधन है जो मनुष्य को अपनी बात औरों तक पहुँचाने का सुख प्रदान करती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमारे भारतीय संविधान के निर्माणकर्ताओं ने इसे मौलिक अधिकार के रूप में सुरक्षित किया। प्रजातंत्र के सफल संचालन हेतु जन-मानस को निर्भीक हो अपने मत व विचार सबके सम्मुख रखने की स्वतंत्रता होनी भी चाहिए। इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ग़लत उपयोग न हो, इसे अपना मौलिक कर्तव्य मान कर, इसके प्रति हम सबको सचेत रहना चाहिए। 'freedom of speech' के नाम पर देश के विशिष्ट पदाधिकारियों पर कीचड़ उछाल, उनके पद का अनादर करने की आज़ादी पर अंकुश लगाना होगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि भ्रष्ट नेताओं के कुकर्मों को चुपचाप सह लिया जाए। प्रजातंत्र में जनमत प्रभावपूर्ण होता है, जिसमें राजा को रंक और  रंक को राजा बनाने की ताक़त होती है। जनता की इस ऊर्जा का सही व्यय हो, अपशब्दों के व्यर्थ वाक्-युद्ध में अपव्यय न हो। हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दूसरे के दिल का घाव न बन जाए, इसका पूरा ध्यान रखना पड़ेगा। 

रिश्ते

आँधियाँ ख़ूब चली..
तूफ़ान भी हुआ न कम,
उखड़ जाने की ज़िद में,
हिल गए...
सभी बंधन !
क्या होगा..?
क्या न होगा..?
सोच कर...
घबराता था,
अंतर्मन !
इसी दुविधा में..
कई दिनों तक,
बेचैन रहा..
मेरा मन !

वातावरण ...
शांत..
स्निग्ध सा है !
हवाएँ भी हैं नम..
हल्के अँधियारे के बीच,
स्पष्ट...
दिखता है कम..!
दिल करता है
देखूँ...
शायद...
जीवित हो..
कोई ...
धड़कन !
बढ़े हाथों को, 
लेकिन...
रोक देता है,
कंपन..!

सोचता हूँ...
पास रह कर
दूर रहने से,
बेहतर है...
दूर रह कर
पास रहना !
जिस तरह...
नदी के ...
दोनों तट
आमने-सामने
रह कर भी,
नहीं मिलने का,
करते नहीं ग़म !
भावनाओं के पानी से
फिर भी... ,
जुड़े रहते ...
हरदम ...!





Wednesday, April 27, 2016

उलझन

डोर में पड़ी
उलझन को
मत खींचो
इस क़दर
   कि
   वह
गाँठ बन जाए...
    पड़ी
  गाँठ को
  मत कसो
इतना...कि...
    जोड़
    और
सख़्त हो जाए !
     धैर्य
     और
     प्रेम से
 मुमकिन है...
   पड़ी दरार
समतल हो जाए !
   संभव है ...
डोर के टूटने
 से पहले ही,
   उलझन
 सुलझ जाए
टूटने से पहले ही,
      रिश्ते
  सँवर जाए !
   

Monday, April 25, 2016

इंसान

       
हम तो आख़िर इंसान ही हैं,
शिव की तरह भगवान नहीं,
जो....
सती के शव को,
काँधे पर उठाए,
ब्रम्हाण्ड का
भ्रमण कर आए !
मानव मन
कब तक ..?
जर्जर रिश्तों का
बोझ उठाएगा,
शिथिल संबंधों को
कब तक..?
अपनी साँसों से
चलाएगा ..?
जाने वाला तो
जाता ही है
इंसान
कब उन्हें
 रोक पाता है...?
मुर्दा लोगों की
बस्ती में,
जीते जी
कौन मर पाता है
मृत हुए
रिश्तों में
पुन:
प्राण
कौन फूँक पाता है...?
जीते जी
कौन मर पाता है...?

अभिलाषा

   
नए शतक में बने सशक्त,
                मन में कर के कुछ दृढ़ विचार !
नए समाज का गठन करें,
                 मिल दूर करें यह भ्रष्टाचार !
अपनी संस्कृति पर गर्व करें,
                    करके पश्चिम का बहिष्कार !
 गाँधी-शास्त्री का स्मरण कर,
                     जीवन में लाएँ सदाचार !
जीत लें सारे जग का मन,
                     प्रेम का कर के निर्मल व्यवहार !
गुरूजनों का आशीष ले ,
                         विकसित करें सुसंस्कार !
 स्वयम से ऊपर उठ कर जानें,
                          कितना सुख देता परोपकार !
निस्वार्थ प्राण त्याग रण में,
                          वीर जग को दे जाता जीवन उपहार!

कर्मठ

       
समय नहीं कहकर जो,
कर्तव्य से जी चुराते हैं
प्रकृति, प्रगति और निज प्रवृत्ति का
सम्मान न वे कर पाते हैं !

हर कार्य में रहे जो प्रस्तुत,
सच्चा व्यस्त वही होता है ।
पंख फैलाने को हो तत्पर
उन्मुक्त उड़ान वही भरता है।

करना है फिर क्या असमंजस ?
बीता समय नहीं आता है।
मर्यादा का झूठा बंधन,
बचने को बाँधा जाता है।