अभिव्यक्ति वैचारिक आदान-प्रदान का ऐसा साधन है जो मनुष्य को अपनी बात औरों तक पहुँचाने का सुख प्रदान करती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमारे भारतीय संविधान के निर्माणकर्ताओं ने इसे मौलिक अधिकार के रूप में सुरक्षित किया। प्रजातंत्र के सफल संचालन हेतु जन-मानस को निर्भीक हो अपने मत व विचार सबके सम्मुख रखने की स्वतंत्रता होनी भी चाहिए। इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ग़लत उपयोग न हो, इसे अपना मौलिक कर्तव्य मान कर, इसके प्रति हम सबको सचेत रहना चाहिए। 'freedom of speech' के नाम पर देश के विशिष्ट पदाधिकारियों पर कीचड़ उछाल, उनके पद का अनादर करने की आज़ादी पर अंकुश लगाना होगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि भ्रष्ट नेताओं के कुकर्मों को चुपचाप सह लिया जाए। प्रजातंत्र में जनमत प्रभावपूर्ण होता है, जिसमें राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की ताक़त होती है। जनता की इस ऊर्जा का सही व्यय हो, अपशब्दों के व्यर्थ वाक्-युद्ध में अपव्यय न हो। हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दूसरे के दिल का घाव न बन जाए, इसका पूरा ध्यान रखना पड़ेगा।
Friday, April 29, 2016
रिश्ते
आँधियाँ ख़ूब चली..
तूफ़ान भी हुआ न कम,
उखड़ जाने की ज़िद में,
हिल गए...
सभी बंधन !
क्या होगा..?
क्या न होगा..?
सोच कर...
घबराता था,
अंतर्मन !
इसी दुविधा में..
कई दिनों तक,
बेचैन रहा..
मेरा मन !
वातावरण ...
शांत..
स्निग्ध सा है !
हवाएँ भी हैं नम..
हल्के अँधियारे के बीच,
स्पष्ट...
दिखता है कम..!
दिल करता है
देखूँ...
शायद...
जीवित हो..
कोई ...
धड़कन !
बढ़े हाथों को,
लेकिन...
रोक देता है,
कंपन..!
सोचता हूँ...
पास रह कर
दूर रहने से,
बेहतर है...
दूर रह कर
पास रहना !
जिस तरह...
नदी के ...
दोनों तट
आमने-सामने
रह कर भी,
नहीं मिलने का,
करते नहीं ग़म !
भावनाओं के पानी से
फिर भी... ,
जुड़े रहते ...
हरदम ...!
तूफ़ान भी हुआ न कम,
उखड़ जाने की ज़िद में,
हिल गए...
सभी बंधन !
क्या होगा..?
क्या न होगा..?
सोच कर...
घबराता था,
अंतर्मन !
इसी दुविधा में..
कई दिनों तक,
बेचैन रहा..
मेरा मन !
वातावरण ...
शांत..
स्निग्ध सा है !
हवाएँ भी हैं नम..
हल्के अँधियारे के बीच,
स्पष्ट...
दिखता है कम..!
दिल करता है
देखूँ...
शायद...
जीवित हो..
कोई ...
धड़कन !
बढ़े हाथों को,
लेकिन...
रोक देता है,
कंपन..!
सोचता हूँ...
पास रह कर
दूर रहने से,
बेहतर है...
दूर रह कर
पास रहना !
जिस तरह...
नदी के ...
दोनों तट
आमने-सामने
रह कर भी,
नहीं मिलने का,
करते नहीं ग़म !
भावनाओं के पानी से
फिर भी... ,
जुड़े रहते ...
हरदम ...!
Wednesday, April 27, 2016
उलझन
डोर में पड़ी
उलझन को
मत खींचो
इस क़दर
कि
वह
गाँठ बन जाए...
पड़ी
गाँठ को
मत कसो
इतना...कि...
जोड़
और
सख़्त हो जाए !
धैर्य
और
प्रेम से
मुमकिन है...
पड़ी दरार
समतल हो जाए !
संभव है ...
डोर के टूटने
से पहले ही,
उलझन
सुलझ जाए
टूटने से पहले ही,
रिश्ते
सँवर जाए !
उलझन को
मत खींचो
इस क़दर
कि
वह
गाँठ बन जाए...
पड़ी
गाँठ को
मत कसो
इतना...कि...
जोड़
और
सख़्त हो जाए !
धैर्य
और
प्रेम से
मुमकिन है...
पड़ी दरार
समतल हो जाए !
संभव है ...
डोर के टूटने
से पहले ही,
उलझन
सुलझ जाए
टूटने से पहले ही,
रिश्ते
सँवर जाए !
Monday, April 25, 2016
इंसान
हम तो आख़िर इंसान ही हैं,
शिव की तरह भगवान नहीं,
जो....
सती के शव को,
काँधे पर उठाए,
ब्रम्हाण्ड का
भ्रमण कर आए !
मानव मन
कब तक ..?
जर्जर रिश्तों का
बोझ उठाएगा,
शिथिल संबंधों को
कब तक..?
अपनी साँसों से
चलाएगा ..?
जाने वाला तो
जाता ही है
इंसान
कब उन्हें
रोक पाता है...?
मुर्दा लोगों की
बस्ती में,
जीते जी
कौन मर पाता है
मृत हुए
रिश्तों में
पुन:
प्राण
कौन फूँक पाता है...?
जीते जी
कौन मर पाता है...?
अभिलाषा
नए शतक में बने सशक्त,
मन में कर के कुछ दृढ़ विचार !
नए समाज का गठन करें,
मिल दूर करें यह भ्रष्टाचार !
अपनी संस्कृति पर गर्व करें,
करके पश्चिम का बहिष्कार !
गाँधी-शास्त्री का स्मरण कर,
जीवन में लाएँ सदाचार !
जीत लें सारे जग का मन,
प्रेम का कर के निर्मल व्यवहार !
गुरूजनों का आशीष ले ,
विकसित करें सुसंस्कार !
स्वयम से ऊपर उठ कर जानें,
कितना सुख देता परोपकार !
निस्वार्थ प्राण त्याग रण में,
वीर जग को दे जाता जीवन उपहार!
कर्मठ
समय नहीं कहकर जो,
कर्तव्य से जी चुराते हैं
प्रकृति, प्रगति और निज प्रवृत्ति का
सम्मान न वे कर पाते हैं !
हर कार्य में रहे जो प्रस्तुत,
सच्चा व्यस्त वही होता है ।
पंख फैलाने को हो तत्पर
उन्मुक्त उड़ान वही भरता है।
करना है फिर क्या असमंजस ?
बीता समय नहीं आता है।
मर्यादा का झूठा बंधन,
बचने को बाँधा जाता है।
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