Saturday, December 30, 2017

                                                              माँ की कुर्सी

इन दिनों एक पंजाबी ढाबा बहुत चर्चा में है। जिससे बात करो सब उसकी तारीफ़ करते नही थकते हैं। कल मुझसे मिलने मेरी सहेली जॉली आई थी। सुस्ताने के तुरंत बाद ही वह शुरू हो गई।

“अरे तूने “माँ की कुर्सी” का खाना खाया क्या? मेरी विस्मित निगाहें देख कर ही उसे मेरे उत्तर का अंदाज़ा लग गया।

“अरे उसके आलू पराँठे तो इतने लज़ीज़ है और स्पेशल “काजू करी” तो बस ऊँगलियाँ चाटती रह जायेगी।”

“तुझे क्या कमीशन मिल रहा है, उसकी ‘पब्लिसिटी करने का”, मैंने उसे छेड़ते हुए कहा।

“माउंथ पब्लिसिटी“ से ही उसका विज्ञापन हो रहा है, वरना कहीं कोई “होर्डिंग”वग़ैरह नज़र नही आयेगें।”

“अच्छा तब तो जल्द ही चखना पड़ेगा”माँ की कुर्सी” का खाना।पर यह नाम कुछ अजीब सा नही है,
किसी रेस्टोरेंट के लिए ?”

“तूँ भी न ! नाम में क्या रखा है, तूँ तों एक दिन खाना खाकर आ।”

दो दिन बाद ही वहाँ का लज़ीज़ खाना चखने का मौक़ा मिल गया। बाहर से देख कर तो मुझे थोड़ी निराशा ही हुई। बिलकुल साधारण सा ‘एक्सटीरियर”था पर“माँ की कुर्सी” नाम बड़े ही कलात्मक तरीक़े से लिखा हुआ था और शायद वही आकर्षण बिंदु था।

तीव्र जिज्ञासा के साथ हमने अंदर प्रवेश किया। दरवाज़े के बाईं तरफ़ एक चौखट के अंदर एक “एन्टीक”नुमा बड़ी सी कुर्सी दिखाई पड़ी। कुर्सी को बहुत प्यार से लाल रंग में रंगा गया था और उस पर सुनहरे रंग की चित्रकारी की हुई थी। देखने से ही महसूस होता था कि यह कुर्सी किसी के दिल के बहुत क़रीब थी। तभी मेरी निगाह कुर्सी की सीट पर रखी तख्ती पर पड़ी। उस पर क्या लिखा था पढ़ने के लिए मुझे दो क़दम आगे बढ़ना पड़ा। उस पर लिखा था -”यह मेरी माँ की कुर्सी है, कृपया इस पर कोई न बैठे।”
पढ़कर मन में कौतूहल हुआ माँ पर इतनी श्रद्धा रखने वाले सपूत को देखने और उससे बात करने का। उसके लिए मुझे विशेष प्रतीक्षा नही करनी पड़ी। हम दो ही लोग थे इसलिए कोने में लगी एक छोटी टेबल पर हमें तत्काल स्थान मिल गया। मैं सोच रही थी कि वेटर से बुलाकर वहाँ के मालिक के बारे में पूछताछ करूँ और कुर्सी का रहस्य मालूम करूँ तभी सामने से अपनी ओर आती हुई एक लंबी आकृति की तरफ़ मैंने देखा, पर उम्र ने याददाश्त पर अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। उस व्यक्ति ने हमारे क़रीब पहुँच कर झुक कर हम दोनों के पैर छुए और ख़ैरियत पूछी। हमारे चेहरे पर असमंजस्य का भाव देख कर वह बोला -

“ पहचाना नही मुझे? मैं अमित, आपके बेटे का फ़्रेंड !”

“अरे अमित बेटा ! कैसे हो?  बहुत सालों बाद देखा , काफी बदल गए हो। ”पति ने बात को संभालते हुए कहा।
कैसे हो बेटा? हरनी रोड से यहाँ कैसे? वहाँ वाला ढाबा यहाँ शिफ़्ट कर दिया क्या? ”मैंने अपने आप को वार्तालाप का हिस्सा बनाते हुए पूछा।

“नही आंटी,उस ढाबे को मैं बंद कैसे कर सकता हूँ, आड़े वक़्त में हमारा वही तो एक सहारा था। ”कुर्सी पर बैठते हुए वह बोला।

“और सुनाए अंकल, आप लोग सब कैसे हैं? मेरा दोस्त कैसा है? अब तो बहुत बड़ा आदमी हो गया होगा कभी मिलने भी नही आता।”

“अरे ऐसी बात नही है, तुम्हें अक्सर याद कर लेते हैं। इंडिया इतना टाईट प्रोग्राम लेकर आते हैं बच्चे कि किसी से भी मिलना संभव नही हो पाता है।” पति ने बेटे का पक्ष लेते हुए दलील दी।


अमित मेरे बेटे के साथ स्कूल में पढ़ता था। आठवीं कक्षा में था तब उसके पापा की असामयिक मृत्यु हो गई थी। हाईवे आरंभ होने से पूर्व ही उनका पंजाबी ढाबा था। ढाबे में बैठे हुए ही उनका हार्टफेल हो गया था।
अमित अकेला लड़का था। उससे छोटी एक बहन थी। परिवार की रोजीरोटी का एकमात्र साधन वह ढाबा ही था। संवेदना जताने रिश्तेदारों का हुजूम आया। सबने जीवन निर्वाह हेतु अपनी राय दी। उनकी बेबसी और असहायता पर अपनी हमदर्दी दिखाई। सहायक बन पथप्रदर्शक बनने के लिए पर कोई तत्पर नही हुआ। रिश्तेदारों के जाने के बाद माँ-बेटा पहली बार अचानक प्रश्नचिह्न बने जीवन पर विचार करने के लिए बैठे।
माँ ने अमित से उसकी इच्छा पूछी। अमित ने अपनी पढ़ाई पूरी करने की बात कही।सुनकर माँ कई देर ख़ामोश रही।उसने दुनिया देखी थी।इस ढाबे को खड़ा करने में पति के साथ उसने भी बहुत मुश्किलें सहन की थी। अब बरसों के कठिन परिश्रम के बाद जीवन में स्थिरता के आसार नज़र आने लगे थे पर परमात्मा को शायद कुछ और ही मंज़ूर था।

माँ ने बड़े प्यार से अमित के सिर पर हाथ फेरा और समझाने लगी। उनके सामने दो विकल्प थे।पहला उपाय था कि ढाबा बेच कर ब्याज के रूपयों से गुज़ारा कर लें। दूसरा रास्ता था कि ढाबा जैसा चल रहा था उसे वैसे ही चलाते रहें।पहले विकल्प में ज़िंदगी का एक सीमित दायरे में उलझ कर कुंठित हो जाने की संभावना थी जबकि दूसरा विकल्प खुले आसमान की तरह था, जिसमें जितना दम है वह उतनी ऊँची उड़ान भर सकता है।
माँ की इच्छा थी कि अमित दूसरे विकल्प का चयन करे। शिक्षा के महत्व को वह भलीभाँति  समझती थी। पति के साथ मिलकर उसने भी अमित के लिए कुछ ऐसे ही सपने बुने थे। वे लोग अपने एकमात्र बेटे को पढ़ा लिखाकर किसी बड़ी कंपनी के ऊँचे पद पर देखने के ख़्वाब बुन रहे थे। पर तक़दीर के फ़ैसले को समझ पाना मुश्किल था।अमित पढ़ने में औसत विद्यार्थियों की श्रेणी में आता था। माँ ने ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा था और इस बात को अच्छी तरह समझती थी कि खोखले सपनों का कोई आस्तित्व नही हो सकता था।
माँ जानती थी कि अमित को अपनी बात समझाना आसान नही होगा। उसने धैर्यपूर्वक अमित को यह बात समझाई कि स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद वह ज़्यादा से ज़्यादा बी.कॉम कर लेगा। उससे अधिक पढ़ने में उसकी रूचि भी नही थी। कॉमर्स ग्रेजुएट्स की तन्ख्वाह में इस महँगाई के दौर में, दाल रोटी का ख़र्चा निकालना भी भारी हो जायेगा।जो थोड़ी बहुत जमा पूँजी है वह भी हाथ से जाती रहेगी। वह चाहती थी कि अमित ढाबे के काम को संभाले। उस समय तो पुराने सभी नौकर उनका साथ देने को तैयार थे।शुरू के दिनों में उसने भी ढाबे को चलाने में पति की मदद की थी। उसे ढाबा चलाने की समझ थी।वह चाहती थी कि उसकी देखरेख में बेटे को ढाबा चलाने के सारे गुण आ जाए। बेटे ने भी माता के अनुभव और सलाह को मान दिया और पढ़ाई छोड़कर ढाबा संभालने लगा।माँ हर काम में उसके साथ रह कर उसका मनोबल बढ़ाती रहती। थोड़े ही समय में अमित ने काम सुचारू रूप से संभाल लिया और ढाबा अच्छा चल पड़ा।

एक बार हम उसी रास्ते से निकल रहे थे तो अमित को ढाबे के बाहर खड़ा देख,मेरे बेटे ने गाड़ी रोक कर हमारा उससे परिचय करवाया था। उस दिन अमित ने बहुत ज़िद करके हमें अपने ढाबे पर खाना खिलाया था। उस लाजवाब खाने का ज़ायक़ा हमें कई बार उसके ढाबे पर लेकर गया था। पहली बार उसने हमसे खाने के पैसे भी नही लिए थे, इस वादे के साथ कि अगली बार पूरे पैसे लेगा। अमित के साथ एक आत्मीय संबंध सा बन गया था और बेटे की ग़ैरहाजरी में भी हम कई बारे अमित के ढाबे में खाना खाने पहुँच जाते थे। एक बार उसकी माताजी से भी मुलाक़ात हुई थी। उस दिन उनसे काफी लंबी बातचीत हुई थी। इसी दौरान अमित की बहन की शादी तय हो गई।शादी का निमंत्रण देने वह घर आया था।हम अमित की बहन की शादी में गए थे।हमें देख वह बहुत ख़ुश हुआ और हमें बहुत आदर के साथ अपनी बहन-जीजा व अन्य रिश्तेदारों से मिलवाया था।उसके तुरंत बाद हमारे जीवन में कई परिवर्तन इतनी द्रुतगति से आए कि अनचाहे ही अमित के साथ हमारे मिलने-जुलने पर अवरोध आ गया।

हमने अपना पुराना घर बेच दिया और स्टेशन के दूसरी तरफ़ बन रही नई सोसायटी में शिफ़्ट हो गए।सबकुछ बहुत अल्पसमय में हो गया।घर शिफ़्टिंग से पहले पति का स्कूटर से एक्सीडेंट हो गया।पैर में फ़्रैक्चर के कारण छह-सात महीने उन्हें घर पर ही रहना पड़ा।उसी अवस्था में हमें पुराने घर को छोड़ नए घर में आना पड़ा।उसके बाद पिछले कुछ वर्षों में विदेश भ्रमण भी कई बार हुआ।अमित के ढाबे की तरफ़ न जाना हुआ और न ही उससे कोई ताल्लुक ही रहा।आज इतने सालों बाद उससे अचानक मिलकर पुरानी कड़ियों को फिर से जोड़ने का मन हो रहा था।

“बहू कैसी है?  बच्चे… कितने हैं?”  मैंने पूछा।

“रितु मज़े में है आंटी। बच्चे दो हैं, दोनों लड़के।”

“और बेटा मम्मी कैसी हैं? मैंने पूछा।

मम्मी..? आपको पता नही..? हमारी सूनी निगाहों को देख कर बोला-

“मम्मी ने तो अपना कर्तव्य पूरा करते ही दुनिया से अलविदा कह दिया था”

'मैं कुछ समझी नही बेटा,ज़रा खुल कर कहो”

आंटी मेरी शादी के बाद हम सब घर आए।मम्मी ने बड़े चाव से नई दुल्हन से रस्में करवाई। हमारा कमरा भी उन्होंने फूलों से बहुत सुंदर सजवाया था।सारी रस्में करने के बाद मम्मी ने सभी मेहमानों को शादी की बधाई और विदाई देनी शुरू की। कहने लगी फिर सुबह किसी को जल्दी की ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ रहेगी इसलिए मैं सबको अभी शांति से सँभलवा दूँ।सब काम निबटा के हम सब सोने चले गए। सुबह मम्मी अपने समय पर नही उठी तो लगा थकान के कारण लंबा सो रही हैं। मेहमानों के जाने का समय क़रीब आ गया तब मैं मम्मी को जगाने गया।हाथ लगाया तो शरीर बिलकुल बर्फ़ के जैसा ठंडा था।”कहते हुए अमित की आँखें नम हो गई।

“माँ की कुर्सी”का रहस्य अब एक पुत्र की श्रद्धांजलि के रूप में मेरी आँखों को नम कर रहा था।

                                                                    कहानीकार --  उर्मिला पचीसिया
                                                                   email - Urmila.pachisia@gmail.com